Saturday, May 8, 2010

ग्रामीण सम्पदा और ग्रामीण गरीब

ग्रामीण सम्पदा और ग्रामीण गरीब
गणित की भाषा में बात करें तो ग्रामीण * सम्पदा = ग्रामीण * गरीब होते है। यानि कि सम्पदा = गरीब होता हैं। ( गरीब = सम्पदा भी हो जाता हैं। यह भी सही हैं क्योंकि गाँव से बिना बोल अथवा बोली के बेचारी सम्पदा चली जाती हैं।) यहाँ सम्पदा = गरीब न कह कर अगर इसे सम्पदा = लोग लिख दिया जाय तो ज्यादा उपयुक्त होगा। क्योंकि गांवो में लोग बसते हैं और लोगों में ही गरीब, धनवान अथवा सम्पन्न लोग होते हैं।

बात कहने का अर्थ यह है कि गांवो में कितनी सम्पदा है और वह किसकी हैं, लोगों की हैं यानि गांव में बसने वाले समुदाय की हैं अथवा नहीं। गणित का हिसाब इसलिए लगाया गया ताकि किसी न किसी तरिके से सम्पदा बराबर क्या होता हैं यह जान सके। यह हिसाब सिर्फ अर्थशास्त्री ही समझ सकते हैं अथवा पुंजीपति। ग्रामीण समुदाय न तो गणित जानते और न ही गणित के फार्मूले।

लेकिन जानते थे कोठियों में अनाज, बा़ड़ों में चारा और कुण्ड, टांकों में पानी इक्कठा कर ऱखना ताकि अगली वर्षा तक कम से कम भूखा – प्यासा नहीं रहना पड़े तथा पशु भी, दोनों एक साथ करते थे। फिर भी अकाल की मार तो झेलते ही थे। गांवो में आज भी यह ही सिस्टम अथवा रिवाज हैं। जो अर्थव्यवस्था की भाषा में GDP को अर्थव्यवस्था की रीढ की हड्डी कहा जाता हैं।वैसे ही ग्रामीण क्षैत्र की GDP है खेत का अनाज + चारा + पानी + पशु । परिवार की इस GDP की बढोतरी दर इस प्रकार होती थी कि अनाज चारा पानी और पशु कितने समय तक चलता था अथवा कम ज्यादा उपयोग कर गर्मियों का मुश्किल समय पार कर लेते थे। इसे ग्रामीण लोग अच्छा GDP मानते थे।

अब क्योंकि बात थी ग्रामीण सम्पदा की – पीढियों से गांव बसे है, ग्रामीण सम्पदा पर और वही उनकी GDP रही हैं। लेकिन वह क्या है ग्रामिण सम्पदा। खेत, जमीन, पेड़, कृषि उत्पादन, लकड़ियां, खनिज, पशु, दूध, हड्डियां, चमड़ा जो गांव में exist है यही सम्पदा है।

अब सवाल है कि अमीर कौन है बाजार या गांव।
बाजार के existing संसाधन – मकान, दूकानें, सड़कें, लाईटें, लोग, गाड़ियां, फेक्टरी, बाजार का उत्पादन। गांव और बाजार की तुलनात्मक विवरण से यह पता लगता है कि खेत बाजार में नहीं है, जबकि खेतों का उत्पादन बाजार में आता है। पानी की सप्लाई भी बाहर से आती है। चारे के डिप्पो भी गावों से ही लाये गये चारे के है। लकड़ियां भी गांवों से ही आती है। बाजारों में लोग भी गांवों से ही आते है। गाड़ियां बसें भी अपनी कमाई गांवों से ही करते है। ऊन, दूध, चमड़ा, हड्डियां गांवों से ही आती है। इसका मतलब गांवों का सारा माल शहरों में अथवा बाजारों में आ जाता है। जो भी माल गांव में था वह बाजार में आ गया तो गांव में क्या बचा, कुछ भी नहीं। लोग, महिलाऐ, बच्चें, गरीब, मार्जनलाइज्ड सब गांव में बसते है। उनके लिए कुछ बचा नहीं है। तब यही लोग उस माल के पीछे पिछे शहर में आते है उसी माल को लेने के लिए जो गांव से ही आया था। कहने का अर्थ है कि अगर एक परिवार का मुखिया अपनी खातेदारी की जमीन किसी और को बेच देता है तो उनके बच्चों के हिस्से कुछ बचती नहीं हैं तब उनके बच्चें उसी (अपने पिता की) जमीन पर मजदूरी करने के लिए जायेगें जो उनकी होती, लेकिन नहीं है । गांव के लोग उस भूमिहीन बच्चे की तरह हैं जिसका अपना कुछ नहीं है । इसलिए गांव के लोग गरीब है ।

संविधान के अनुच्छेद 31 व 31क में सम्पदा अर्जन का जिक्र है । अनुच्छेद 243ज में स्थानीय कर, शुल्क, फीस आदि ग्राम पंचायत की सम्पदा का हवाला है । लेकिन ये सब लिखित में है न की सोच और क्रियान्वयन में ।

शायद इसलिए गरीब, दलित और जो मार्जनलाइज्ड जनता अथवा जिन्हें पहुंच से बाहर कहा गया है । जिन्हें देश में हो रहे नित परिवर्तित नितियां, नित परिवर्तित योजनाएं, नयिम, आदेश बीपीएल, लालच पैदा करने वाली नितियां आदि, हजारों तरह के समाचारों, भाषणों, आशवासनों की अन्धाधुध बौछारो में तिलमीलाएं हुए अन्धे हो गये है । इसलिए हमें कुछ दिखता नहीं है । लेकिन इतिहास को ढूढकर देखते है तो बर्बादी के अलावा कुछ होआ नहीं ।

विकासशील भारत के गांवों में एवं ग्राम पंचायतों में सरकारी कर्मचारी जो जानता के सहयोगी, मार्गदर्शक एवं विकास को पक्का पक्का करने वाले सिर्फ अध्यापक, पटवारी, ग्राम सेवक, एक र्नस, र्वतमान में एक की बढोतरी कर सहायक ग्राम सेवक है । इस प्रकार कुछ 5 कर्मचारी है । इनकर्मचारीयों की कितनी मदद गांव के लोगों को अथवा जरूरतमन्दों को अथवा मार्जनलाइज्ड जनता को मिलती है । ग्रांम पंचायत को तीसरी संसद का रूप मानी गई है । जबकि जन प्रतिनिधियों के द्वारा किये जाने वाले विकास की दर के, उनकी पढाई – लिखाई के स्तर सहित सुख्य तीन कारण सामने आ रहे है – 1 कमजोर शिक्षा का स्तर, 2 संविधान की जानकारी नही तथा तीसरा कारण है कि सरकार भाक्तियां प्रदान नहीं कर रही है । यह तीनों कारण ग्रामीण क्षेत्र की जनता का भविश्य है । जो 70 प्रतिशत से ज्यादा है । इन्हीं में से है दलित मार्जनलाइज्ड जो पहुंच से दूर कहा जाता है । संविधान के अनुसार और 73वें संविधान के अनुसार गांव का विकास यानि GDP की ठेकेदारी तीसरी संसद की है । दूसरी तरफ गांव की सम्पदा गरीब होकर बीना बोल के, यानि बिना वारिस के गांव से चली जाती है । इसलिए गांव गरीब हो जाता है और गांव के सभी निवासी गरीब रह जाते है । दूसरी तरफ एनजीओ भी विकास की जिम्मेदारी लिए हुए है । खुद तैर नहीं सकता तो कंसल्टेंसी के बेसपर छिल छिले पानी को भी तैर कर पार होने में कामयाब हो रहे है । महानरेगा भी सरकार का है, कागजो का है अथवा एनजीओं का है । गांव का नहीं ग्राम पंचायत का नहीं और न गांव की सम्पदा का । इसलिए गांव एवं गांव के लोग अमीर नहीं हो सकते । गांव की गरीबी नहीं जा सकती । क्योंकी गांव की अथवा गांव के लोगों की सम्पदा बाहर चली जाती है, जिसका हिसाब नहीं होता है।
Karna Ram Poonar
NVA Fellow-2005
karnaram@gmail.com
91 9636834885